पत्थर सुलग रहे थे कोई नक्श-ए-पा न था...
पत्थर सुलग रहे थे कोई नक्श-ए-पा न था
हम उस तरफ़ चले थे जिधर रास्ता न था....
परछाईयों के शहर की तनहाईयां न पुछ,
अपना शरीक-ए-ग़म कोई अपने सिवा न था
यूं देखती हैं गुमशुदा लम्हों के मोड से,
इस जिंदगी से जैसे कोई वास्ता न था
चेहरों पे जम गई थी ख़यालों की उलझनें,
लफ़्जों की जुस्तजु में कोई बोलता न था
खुर्शीद क्या उभरते दिल की तहों से हम ,
इस अंजुमन में कोई सहर आशन ना था
पत्थर सुलग रहे थे कोई नक्श-ए-पा न था,
हम उस तरफ़ चले थे जिधर रास्ता न था....